Thursday 15 September 2016

रेखा….अनकही कहानी….


इस बहाने मगर देख ली दुनिया हमने



कितना मुश्किल है। जिसकी जिन्दगी के पन्नों पर आप लिखने जा रहे है, वह आपसे बात ही ना करे। और उसकी जिन्दगी के पन्नों को जिसने संवारा हो, उससे भी आपकी कोई बात ना हो। फिर भी आप लिखे जा रहे हैं। पहले से कहे-लिखे गये पन्नों को अपनी दृश्टि से नये पन्नो पर उकेर रहे हैं और पढ़ने वाले पढ़े जा रहे हैं। तो ये किताब की सफलता है या फिर उस शख्स की जिसने अपनी जिन्दगी की अहमियत को जब समझा, अपने वजूद का एहसास नये रुप में किया तो खुद को कुछ इस तरह ढक लिया कि आजभी उस शख्स को देखते ही बहुतेरी अनकही कहानियां दिलोदिमाग में  ही जाती है । और उसके बारे में और जानने की चाहत चाहे अनचाहे उसके बारे में लिखे कुछ भी शब्दो में मायने खोजने को मजबूर करती है। जी, उस शख्स का नाम है रेखा। किताब का नाम है रेखा। भगवती चरण वर्मा का उपन्यास रेखा नहीं। बल्कि फिल्म अदाकारा रेखा पर लिखी गई यासिर उस्मान की पुस्तक रेखा। जिसने मना कर दिया कि उसपर लिखी जा रही किताब पर वह कुछ नहीं कहेंगी। जिसकी जिन्दगी में आये तीन शख्स। विनोद मेहरा । किरण कुमार । अमिताभ बच्चन। इनसे भी कोई बात इस किताब को लिखने के दौर में नहीं हुई। और जिस शख्स से विवाह फिर तलाक हुआ, उस शख्स मुकेश अग्रवाल के साथ बिताये बेहद कम दिनो के दौर को लिखते वक्त ही लेखक को हकीकत की जमीन मिली। कयोंकि किताब चाहे रेखा पर हो लेकिन मुकेश अग्रवाल से रेखा ने शादी क्यों कि और फिर शादी क्यों टूटी। उस दौर के किरदार जिन्दा भी हैं और दुनिया के सामने कभी आये भी नहीं ये भी सच हैं। दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रहे नीरज कुमार। बीना रमानी और सुरेन्द्र कौर। तीनों की मौजूदगी । तीनो की रजामंदी । तीनो ने ही उस दौर को देखा ही नहीं बल्कि उन हालातो में बराबर का सहयोग दिया जिसके बाद मुकेश अग्रवाल और रेखा की शादी हुई ।
लेकिन रेखा की जिन्दगी वाकई अनकहे सच को टटोलने की दिसा में बढते कदमो से ज्यादा कुछ नहीं । तो हर शब्द सस्पेंस की घुट्टी में डुबोने का प्रयास होगा। इससे इंकार कौन कर सकता है । मसलन मुकेश अग्रवाल ने खुदकुशी उसी दुप्पटे को गले में बांध कर की जो रेखा का प्रिय दुपट्टा था । तो किताब मुकेश अग्रवाल की जिन्दगी से शुरु होती है । और मुकेश की जिन्दगी पर पडे रेखा के तिलिस्म को धीरे धीरे उठाती है। और रेखा के बारे में एक सोच बनाने को मजबूर करती है । जाहिर है रेखा से कोई बात नहीं तो रेखा को चाहने वाले यासर उस्मान के शब्दो पर भरोसा भी कितना करें । लेकिन स्टारडस्ट से लेकर सिमी ग्रेवाल को दिये इंटरव्यू । 70 के दशक में मीडिया के सामने रेखा के बेलौस बयान । और जया भादुडी से लेकर जया बच्चन बनने के दौर में रेखा की दीदीभाई यानी जया से दोस्ती से लेकर दूरिय़ॉ बनाने-बनने की नकही दास्तन को अपने नजरिये से जिस तरह लेखक ने पन्नों पर उकेरा वह किसी सिनेमायी स्क्रिप्ट से ज्यादा नही तो कम भी नहीं है । क्योंकि जब लेखक से कोई संवाद किसी का नहीं है तो पढने वाले को लेखक की समझ या उसके दिमाग में चल रहे ताने-बाने के भरोसे ही चलना होगा । लेकिन दिलचस्प है रेखा के उन अनझुये पहलुओ को जानना जिसे रेखा खुद कभी जुबां पर ला नहीं पायी ।

कौन जानता है कि जया और रेखा दोनों ही जुहु  अपार्टमेंट में रहते थे । कितनों को पता है कि जया को रेखा ने बहन मान कर बेहतीन सुझाव देने वाला माना। लेकिन अमिताभ बच्चन से शादी हुई तो जया ने रेखा को निमंत्रण तक नहीं दिया। कितनों को पता है कि रेखा का अमिताभ बच्चन को लेकर आकर्षण काम के प्रति अमिताभ की प्रतिबद्दता और अनुशासन को लेकर हुआ। फिल्म दो अनजाने की कलकत्ता में शूटिंग के वक्त ही अमिताभ ने अपने पुराने शहर को जीने निकले तो साथ संवाद बनाने के लिये सहयोगी अदाकारा रेखा ही थीं, जो कलकत्ता शहर से अनजान थी। तो संवाद बना । और कितनों को मालूम है कि अमिताभ-रेखा की सिनेमायी पर्दे पर कैमेस्ट्री से गुस्सायी जया ने रेखा के साथ अमिताभ का काम मुकद्दर का सिंदर के बाद बंद तो करवा दिया । लेकिन फिल्म सिलसिला में महज एक डॉयल़ॉग या कहें फिल्म के आखिरी सीन ने जया बच्चन सिलसिला में काम करने पर हामी भरवा दी। वह भी फिल्म की आखिरी सीन/डॉयलॉग, ‘ जया अस्पताल के बेड पर बेहोश लेटी है। डाक्टर-नर्स उसमें जान देने की कोशिश कर रहे है । तभी अमिताभ बच्चन ह़ॉस्पीटल पहुंचे है । कमरे से सभी को बाहर जाने के लिये कहते है और जया का ठंडा पड़ता हाथ अपनी हर्म हथेलियो में लेकर कहते हैशोभा मै वापस आ गया हूं..हमेशा के लिये और जया धीरे धीरे आंखे खोल कमजोर जुबां से कहती है मैं जानती थी..तुम वापस जरुर आओगे……और यहां प्यार पर विश्वास की जीत होती है । क्योंकि समूची फिल्म में जब रेखा और जया टकराते है तो संवाद रेखा के इसी डॉयलॉग पर आकर ठहरता है कि….आप अपने विश्वास के साथ रहिये, मुझे मेरे प्यार के साथ रहने दीजिये।   कितने धूप-छांव रेखा की जिन्दगी में कब कैसे टकराये इन हालातो को पढने वाला किताब के रेफरेन्स से जोड कर समझ सकता है क्योकि किताब खुद को रेखा होने से बचाती है । लेकिन रेखा को रेखा होने से नहीं बचा पाती। इसलिये जयपुर में महान की शूटिंग के वक्त रेखा को लेकर कमेंट करने पर एक फैन से ही अमिताभ का उलझना या फिर फिल्म कुली में अमिताभ के घायल होने के बाद पुनीत के ये कहने पर, …..जिसकी सजा तुम हो मैंने वह गुनाह किया है । इस पर रेखा का कमेटऔर कितने गुनाह करेंगें आप ।

लेकिन रेखा को बचपन से ना किसी ने संवारा । न किसी ने बचपन जीने दिया । तो किसी पहाडी नदी की तरह रेखा जीवनदायनी नदी के तौर पर देखी भी नही गई । इसलिये जब अमिताभ कुली की शूंटिग से गायल अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे । तब रेखा ने अमिताभ के अमिताभ की मदद की सोच फिल्म उमराव-जान का प्रिमियर रखा । खुद ही सारे निमंत्रण पर हस्ताक्षर किये । लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ही नहीं लोगों ने भी इसे अमिताभ के हक में नहीं माना । और प्रीमियर “  डेड और स्टारलैस “  हो गया । यूं रेखा की जिन्दगी के पन्नो को सिनेमायी डॉयलॉग में खोजने की कोशिश बेमानी है । लेकिन लेखक ने ये हिम्मत दिखायी है । मसलन….खून-पसीना कै डॉयलॉगतेरा हुस्न मेरी ताकत,तेरी तेजी मेरी हिम्मतइस संगम से जो औलाद पैदा होगी, वह औलाद नहीं फौलाद होगी । या फिर गीत….तु मेरा हो गया, मै तेरी हो गई….। विनोद मेहरा के साथ फिल्म घर । उसका गीतआपकी आंखो में कुछ……या आजतक प़ॉव जमीन पर नहीं पडते मेरे । वैसे गुलजार ने रेखा की अदाकारी को देख कर यही कहा.कि….वह उस किरदार को लिबास की तरह पहन लेती है । शायद इसलिये मुज्जफरअली ने उमराव-जान बनने के बाद रेखा की जिन्दगी से गीत जुडा है तो किसी ने ना नहीं कहा……. , जुस्त-जु जिसकी थी उसको ना पाया हमने/इस तरह से मगर देख ली दुनिया हमने…..तो यासर उस्मान की किताब पढते पढ़ते खत्म हो जाये तो भी ये कुलबुलाहट तो बची ही रहती है कि रेखा क्या कभी खुद के बारे में खुलकर कुछ कह पायेगीया फिर रेखा की नकही कहानी के नाम पर ऐसी किताब ही छपेगी ।


Thursday 18 August 2016

देश की आबरू के लुटेरे हैं यह बलात्कारी

   पिछले दिनों बुलंद शहर जि़ले की सीमा में नोएडा से शाहजहांपुर जा रहे एक परिवार की मां व बेटी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार कांड ने एक बार फिर देश में बलात्कार पर प्राय: होती रहने वाली चर्चाओं को बल प्रदान किया है। खबरों के अनुसार लगभग पंद्रह मानव रूपी दरिंदों ने एक पिता के सामने पहले लूटपाट की घटना को अंजाम दिया। तत्पश्चात उसकी बेटी व पत्नी का बलात्कार किया। इस बलात्कार कांड ने उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक की सत्ता में खलबली मचा दी है। बताया जा रहा है कि पीडि़त परिवार कार में सवार होकर नोएडा से शाहजहांपुर जा रहा था तभी कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा इस शर्मनाक घटना को अंजाम दिया गया। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस घटना के प्रति गंभीरता दिखाते हुए बुलंदशहर के एसएसपी सहित कई अन्य पुलिस अधिकारियों को निलंबित कर दिया तथा राज्य के मुख्य सचिव,गृह सचिव तथा प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को इस गैंगरेप से संबंधित संपूर्ण जांच प्रक्रिया को सीधेतौर पर स्वयं अपनी निगरानी में कराए जाने का निर्देश भी दिया है।



                इस घटना से चंद दिनों पूर्व ही दिल्ली की एक चौदह वर्षीय बलात्कार पीडि़त युवती ने अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया था। युवती के परिजनों के अनुसार लगभग आठ महीने पूर्व पीडि़त युवती के साथ बलात्कार हुआ था। परिजनों का आरोप है कि इस युवती के साथ बलात्कार करने के आरोपी व्यक्ति ने ही गत मई माह में इसी युवती का पुन:अपहरण कर लिया और लगभग एक सप्ताह तक उसका यौन उत्पीडऩ किया। हमारे देश में इस प्रकार की घटनाएं आए दिन देश के किसी न किसी राज्य में होती ही रहती हैं। कहीं-कहीं तो बलात्कार पीडि़ता या तो स्वयं सामाजिक भय के कारण ऐसी घटनाओं को छुपा जाती है या फिर उसके परिवार के लोग ही समाज में होने वाली बदनामी के चलते ऐसे मामलों में पर्दा डालने में अपनी भलाई समझते हैं। बलात्कार संबंधी कई घटनाएं हमारे देश में ऐसी भी होती हैं जिनपर पुलिस विभाग संज्ञान नहीं लेता और पीडि़त परिवार के लोगों को ही बहला-फुसला कर या डरा-धमका कर वापस भेज देता है। इस प्रकार के मामले ऐसे भी होते हैं जिसमें बलात्कारी दबंग व बाहुबली होते हैं और पीडि़त परिवार गरीब व कमज़ोर। ऐसे मामले डरा-धमका कर या पैसों का लेन-देन कर दबा दिए जाते हैं। यकीनन अगर देश में होने वाली बलात्कार की सभी घटनाओं की खबरें पूरी पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक होने लगें तो यह आंकड़ा इतना बड़ा है कि हमारा देश मात्र इन्हीं घटनाओं के कारण दुनिया में सिर उठाने के लायक भी न रहे।

                जब-जब देश के किसी भी कोने में ऐसी घटनाओं की $खबरें आती हैं उसी समय इन खबरों के साथ-साथ राजनैतिक दलों द्वारा अपनी सियासी सरगर्मियां भी शुरु कर दी जाती हैं। ऐसी घटनाओं के बाद विपक्षी दलों द्वारा लगाए जाने वाले आरोपों से तो ऐसा प्रतीत होने लगता है गोया सत्तापक्ष के लोगों की नाकामियों की वजह से ही ऐसी घटना हुई हो। विपक्ष इन घटनाओं का राजनैतिक लाभ उठाने के लिए सत्तापक्ष को तथा प्रदेश की $कानून व्यवस्था को सीधेतौर पर दोषी ठहराने लगता है। समाज के कई स्वयंभू ठेकेदार,राजनेता तथा धर्मगुरु भी अपने-आप को ऐसी घटनाओं से दूर नहीं रख पाते और अपनी समझ,सूझबूझ,सामथ्र्य तथा अपने पूर्वाग्रह या नफे-नुकसान के मद्देनज़र वे भी तरह-तरह की बयानबाजि़यां करने लग जाते हैं। मिसाल के तौर पर कोई यह कहते सुनाई देता है कि महिलाओं को देर रात बाहर निकलने अथवा कहीं नौकरी करने हेतु आने-जाने की ज़रूरत ही क्या है? कोई कहता सुनाई देता है महिलाओं के लिबास उनके साथ होने वाली बलात्कार की घटनाओं का कारण होते हैं। कोई लड़कियों की उच्चस्तरीय शिक्षा तथा महाविद्यालयों में सहपाठी के नाते लड़कियों व लड़कों के मध्य होने वाली मित्रता पर ही सवालिया निशान खड़ा कर देता है। परंतु वास्तव में इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं है जो बलात्कार का कारण बनती हो तथा जिसकी वजह से बलात्कारी मानसिकता रखने वाले लोगों को प्रोत्साहन मिलता हो।

                हमारे देश में बलात्कार के आरोप बुलंदशहर कांड की तरह केवल घुमंतरू या आवारा $िकस्म के लोगों पर ही नहीं लगते। बल्कि देश के अनेक स्वयंभू धर्मगुरू,कई उच्चाधिकारी,नेता,संपन्न व प्रतिष्ठित लोग यहां तक कि हमारे देश की सेना व पुलिस विभाग के लोगों के नाम भी इस प्रकार की शर्मनाक घटनाअें में सामने आ चुके हैं। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि बलात्कार का संबंध किसी विशेष तब$के अथवा श्रेणी के लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह एक ऐसा मानसिक रोग है जिसका शिकार कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी वर्ग,श्रेणी अथवा ओहदे का क्यों न हो, हो सकता है। बलात्कार का संबंध गरीबी-अमीरी,धर्म-जाति, रंग-भेद तथा शिक्षित व अशिक्षित जैसी श्रेणियों से कतई नहीं है। यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो बलात्कारी व्यक्ति अथवा इस दुष्कर्म में शामिल सभी लोगों को दरिंदगी की किसी भी सीमा तक ले जा सकता है। मिसाल के तौर पर पूर्वोत्तर में कुछ सैनिकों द्वारा एक महिला के साथ न केवल बलात्कार किया गया था बल्कि उसके गुप्तांग में पत्थर तक ठूंस दिए गए थे। ऐसी रुग्ण मानसिकता रखने वाले लोगों के बारे में आखिर क्या राय कायम की जानी चाहिए ? इसी प्रकार दिल्ली का निर्भया कांड भी पूरे देश के लोगों के रोंगटे खड़े कर गया। किस प्रकार दरिंदों ने निर्भया के साथ बलात्कार किया तथा उसके शरीर के निजी हिस्सों को इस दरिंदगी के साथ क्षति पहुंचाई कि आखिरकार उस युवती ने दम तोड़ दिया।

                इसमें कोई शक नहीं कि ऐसी घटनाएं केवल कोई घटना या जघन्य अपराध मात्र नहीं हैं बल्कि इन घटनाओं ने हमारे देश के माथे पर कलंक लगाने का काम किया है। हमारे देश में ऐसी ही मानसिकता रखने वाले दरिंदों द्वारा केवल भारतीय महिलाओं के साथ ही ऐसी घटनाएं अंजाम नहीं दी जाती बल्कि महिलाओं की अस्मिता के भूखे इन दरिंदों द्वारा विदेशी महिलाओं को भी नहीं बख्शा जाता। देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा को कलंकित करने वाले ऐसी मानसिकता के लोग बजाए इसके कि अपने देश में किसी मेहमान पर्यट्क की सहायता करें, किसी विदेशी युवती के मददगार साबित हों तथा उसे सही रास्ता बताने की कोशिश करें बजाए इसके ऐसे लोग उसकी आबरू से खेलने तथा उसके साथ लूटपाट करने की जुगत में लग जाते हैं। दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद बलात्कारियों के विरुद्ध गुस्से की चिंगारी पूरे देश में भड़क उठी थी। इस घटना ने तो अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान भी अपनी ओर इस $कद्र आकर्षित किया था कि कई देशों में भारत में होने वाली बलात्कार की घटनाओं के विषय में विशेष रिपोर्ट एवं संपादकीय प्रकाशित किए गए थे। कुछ देशों ने अपने देश के भारत जाने वाले पर्यटकों के लिए स्वयं को सुरक्षित रखने संबंधी गाईडलाईन भी जारी की थी।
                सवाल यह है कि निर्भया,बुलंदशहर अथवा रोहतक में नेपाली मूल की लड़की के साथ हुई बलात्कार जैसी घटनाओं के चर्चा में आने के बाद $खासतौर पर टीवी चैनल्स द्वारा ऐसी घटनाओं से संबंधित $खबरें प्रसारित करने के बाद शासन-प्रशासन,नेता तथा सामाजिक संगठन कुछ दिनों तक अपनी सक्रियता दिखाते तो नज़र आते हैं। परंतु इनके पास इस समस्या से निपटने का न तो कोई स्थाई समाधान नज़र आता है न ही इस दिशा में यह लोग कोई स्थाई कदम उठाते या कोई सकारात्मक प्रयास करते दिखाई देते हैं। पिछले दिनों हमारे देश की एक अदालत ने बलात्कार से संबंधित एक $फैसले में एक बलात्कारी को केवल इसलिए बरी कर दिया क्योंकि वह हमारे देश के $कानून के मुताबिक नाबालिग था। इस $फैसले के बाद ही देश में यह बहस छिड़ी थी कि आखिर बालिग व नाबालिग़ होने का निर्धारण कैसे किया जाए। जो युवक बलात्कार कर सकता है वह नाबालिग की श्रेणी में कैसे आ सकता है? आदि-आदि। देश में एक बड़ा तब$का ऐसा भी है जो बलात्कारियों के लिए फांसी की सज़ा की मांग करता है। उधर हमारा कानून बलात्कार से लेकर जघन्य हत्याकांड तक में सज़ा-ए-मौत देने से बचने की कोशिश करता है तथा सज़ा-ए-मौत को रेयरआफ द रेयरेस्ट अपराध के लिए सुरक्षित रखने की हिमायत करता है। देश के धार्मिक प्रतिष्ठानों तथा सामाजिक संगठनों द्वारा भी इस दिशा में राष्ट्रीय स्तर पर कोई व्याप्क मुहिम छिड़ती अथवा छिड़ी नज़र नहीं आती। न ही हमारे देश के विद्यालयों में बच्चों को ऐसी कोई शिक्षा दी जाती है जिससे हमारे बच्चों में बलात्कार जैसी घटनाओं के प्रति भय पैदा हो तथा वे ऐसी घटनाओं से दूर रहने की कोशिश करें।

                अत: यह कहना गलत नहीं होगा कि इस विषय पर जब तक पारिवारिक,सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षणिक स्तर पर देश में बच्चों को जागृत नहीं किया जाता तथा अपने बच्चों को अन्य बच्चियों व युवतियों के साथ अपने ही परिवार के सदस्य के रूप में पेश आने की शिक्षा नहीं दी जाती तब तक मात्र $कानून बनाने या देवी पूजन जैसी धार्मिक कारगुज़ारियों से ऐसी घटनाओं को $कतई रोका नहीं जा सकता। और इस प्रकार के मानसिक रोगी तब तक हमेशा किसी न किसी महिला के साथ-साथ देश की आबरू को भी इसी प्रकार लूटते रहेंगे।

करें बालायाम योग और पायें बालों के झड़नें से निजात


यदि आप बाल झड़ने से लगातार दु:खी हैं तो आप बालायाम योग की सहायता लें इससे आप  बालों का झड़ना काफी हद तक  रोक सकते हैं। बालायाम का तात्‍पर्य  है बालों का व्यायाम। यदि आप प्रतिदिन इसका अभ्यास करनें लगेंगे तो बालों का गिरना, समय से पहले सफेदा होना, डैंड्रफ आदि समस्याओं से आप निजात पा सकते हैं ।

इसके लिए आवश्‍यक है कि आप  दोनों हाथों के नाखूनों को आपस में रगड़ें। सुबह नाश्ते से पूर्व  और रात में भोजन से पूर्व  15  मिनट तक बालायाम का अभ्यास करें। करीब दो  से चार महीने में आपको बहुत अंतर पता चल जाएगा।

ज्ञात रहे कि दोनों हाथों के नाखूनों को रगड़ने से स्काल्प तक रक्त संचार तेज होता है जिससे बालों संबंधी समस्याओं से छुटकारा मिलता है क्‍योंकि वहां तक जो रक्‍त संचार होता है वो बालों के लिए बहुत लाभकारी होता है ।

गंजे पुरुषों पर यह आसन बहुत असरकारी है

बालायाम  आसन के अभ्यास पुरुषों के गंजेपन पर अधिक कारगर देखा गया है। महिलाओं के लिए इसके कुछ साइड इफेक्ट्स पड़ सकते हैं। यदि आप इसका प्रतिदिन अभ्यास करेंगे तो  सिर के बाल के साथ-साथ मूंछ, दाढ़ी और कान पर बाल भी बढ़ सकते हैं। यदि महिलाएं ऐसे लक्षण देखें तो तुरंत इसका अभ्‍यास छोड़ दें।

विशेष लाभ के लिए पौष्टिक भोजन लेना आवश्‍यक

 यदि आप इस आसन का विशेष लाभ चाहते हैं तो इसके लिए पौष्टिक भोजन लेना आवश्‍यक है। यदि आप आयरन और प्रोटीन से भरपूर भोजन का सेवन करेंगे तो इसके लाभ बस कुछ चंद महीनों में मिलना शुरू हो जाएगा।


मोदीः देर आयद, दुरस्त आयद!


 नरेंद्र मोदी ने अपने टाउन हॉलभाषण में गोरक्षकों के सवाल पर देश को जो टालू मिक्सचर पिलाया था वह अब दो टूक बयान में बदली है। कल उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं की सभा में नाटकीय ढ़ंग से अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि यदि तुम दलित पर गोली चलाना चाहते हो तो पहले मुझ पर चलाओ।क्या कभी किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा मार्मिक बयान दिया? इस बयान की गहराई ने पता नहीं दलितों को कितना छुआ लेकिन विरोधी दल के नेताओं की नींद हराम कर दी। उन्हें लगा कि जो दलित वोट बैंक उनके हाथ अचानक आ लगा था, वह कहीं खिसक न जाए।

मोदी की वे सराहना करते, इसकी बजाय वे उनकी आलोचना कर रहे हैं। वे मांग कर रहे हैं कि विश्व हिंदू परिषद और संघ के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए लेकिन वे हैरान हो गए होंगे कि विहिप और संघ, दोनों ने मोदी के बयान का समर्थन किया है। दोनों संगठनों ने गोहत्या के नाम पर दलितों की हत्या की भर्त्सना की है। यहां गौर करने लायक बात यह है कि चेला अपने गुरु को पट्टी पढ़ा रहा है। संघ और विहिप मोदी की हां में हां मिला रहे हैं। ये संगठन पहले क्यों नहीं बोले? जब लोहा गरम था, उन्होंने चोट क्यों नहीं की? वे उंघते क्यों रहे? यह चिंता का विषय है।

मोदी ने अपने हैदराबाद भाषण में सिर्फ दलितों पर हमले की भर्त्सना की है। हमले के कारण पर वे अभी भी कन्नी काट गए हैं। उन्होंने तथाकथित गोरक्षकोंकी हिंसा और मूर्खता के असली कारण पर उंगली नहीं रखी है जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव भय्याजी जोशी ने दो-टूक बयान दिया है। जैसे पाकिस्तान हमारे और तुम्हारे व अच्छे-बुरे आतंकवादियों में फर्क करता है, वैसे ही गोरक्षकोंमें भी फर्क करना उचित नहीं है। जो भी गोरक्षकगाय के नाम पर नरभक्षकबनता है, उसे आतंकवादी माना जाना चाहिए।

आप जिन्हें अच्छा गोरक्षक या गोसेवक समझते हैं, उनमें से 99 प्रतिशत लोगों का गाय से कुछ लेना-देना नहीं है। वे गाय की सेवा नहीं, गाय की राजनीति करते हैं। यह सरकार उन्हें गोसेवा के लिए प्रेरित कर सके तो देश का बड़ा कल्याण हो लेकिन ऐसा करने के लिए नेताओं के पास गांधी और विनोबा-जैसा नैतिक बल होना चाहिए। वह तो शून्य है। उनके पास केवल कुर्सीबल है! लेकिन फिर भी संतोष का विषय है कि सरकारी नेता दलितों पर होने वाली हिंसा के खिलाफ खुलकर बोले तो हैं। देर आयद, दुरस्त आयद!

Wednesday 10 August 2016

स्वच्छता या सिर्फ पोस्टरबाजी ?

पिछले दो महिनों में मैं लगभग दर्जन भर नगरों में गया। विभिन्न प्रांतों के इन नगरों में कार से यात्रा करने का लाभ यह हुआ कि अन्य दर्जनों शहरों और गांवों से भी गुजरना पड़ा। उनके मोहल्लों और बस्तियों को नजदीक से देखने का भी मौका मिला। मैंने सोचा कि प्रधानमंत्री जी ने जो स्वच्छ-भारत अभियान चलाया है, उससे इन शहरों और गांवों का काया पलट हो गया होगा लेकिन ऐसा लगा कि ये पहले से भी ज्यादा गंदे हो गए हैं। ये ज्यादा गंदे तो क्या हुए होंगे लेकिन एक खास नजरिए से देखने की वजह से काफी गंदे लग रहे थे।

वे पहले इतने गंदे नहीं लगते थे, क्योंकि गंदगी हमारी नज़र का एक हिस्सा बन चुकी थी। इसका मतलब यह भी नहीं है कि मोदी के स्वच्छता अभियान से दुखी होकर लोगों ने साल-डेढ़ साल से ज्यादा गंदगी फैलानी शुरु कर दी है। प्रधानमंत्री की यह पहल अद्भुत थी लेकिन यह अखबारों, टीवी के पर्दों और इश्तहारों में सिमटकर रह गई। जगह-जगह कचरे के ढेर लगे होते हैं। दूर-दूर तक वे सडांध मारते रहते हैं। उनके आस-पास सूअरों के बच्चे टूट पड़ते हैं। गाय और भैंस भी अपने लिए कुछ न कुछ ढूंढती रहती हैं। मोहल्लों और बाजारों के बीच लगे इन गंदे ढेरों की बदबू से बचने के लिए अपनी नाक पर रुमाल रखना पड़ता है।
कई गांवों में मैंने देखा कि पगडंडियों और सड़कों के किनारे पाखाने का ढेर लगा हुआ है। बरसात में उनकी बदबू घरों तक पहुंची रहती है। यह बीमारी का शर्तिया इंतजाम है। दो दिन से मैं इंदौर में हूं। इस शहर की स्वच्छता पर हम कभी नाज किया करते थे लेकिन इसका हाल भी वैसा ही है, जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूं। और यह तब है जबकि इंदौर का नगर निगम मोदी का है, मप्र की सरकार मोदी की है और केंद्र की सरकार भी मोदी की है।
अब मोदी तो यहां आकर झाड़ू लगाने से रहे। वे तो नौकरशाहों के मोहताज हैं। मैं पूछता हूं, खास तौर से, अमित शाह से, कि आपकी पार्टी के 13 करोड़ सदस्य क्या कर रहे हैं? वे किस काम के हैं? जब तक वे सक्रिय नहीं होंगे, यह स्वच्छता अभियान सिर्फ पोस्टरबाजी बनकर रह जाएगा।

source : .bharat varta

है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़

सब फ़लसफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे-हिन्द
ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक उसका है असर
रिफ़अत में आस्मां से भी ऊंचा है बामे-हिन्द
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त
मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द
एजाज़ इस चिराग़े-हिदायत का है
यही रोशन तिराज़ सहर ज़माने में शामे-हिन्द
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था
पाकीज़गी में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था
सब फ़लसफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे-हिन्द

ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक उसका है असर

रिफ़अत में आस्मां से भी ऊंचा है बामे-हिन्द

इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त

मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द

है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़

अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द

एजाज़ इस चिराग़े-हिदायत का है

यही रोशन तिराज़ सहर ज़माने में शामे-हिन्द

तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था


पाकीज़गी में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे


कैफ़ियात मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19 जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था. उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात (समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म है
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अपने बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो अज़ीम जद्दोजहद हो रही है, उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया है.

कै़फ़ी आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी. उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर (फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल (फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे. कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-
इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े
किताब के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका. उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से एक है-

आज अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज में शक्ति भर दे
इससे पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे होंठों की तपिश पी जाएं
राख हो जाएगा जलते-जलते
और फिर राख बिखर जाएगी
यह नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.
कै़फ़ी आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर, 1974 को लिखी उनकी नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे

उन्होंने अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-

ऐसा झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों

कै़फ़ी को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म को ज़िम्मेदार ठहराया-

जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं

उनकी नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को अपने में समेटे नज़र आता है-

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा

वह तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-

जिसमें जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे

वह गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी लिखते हैं-
राम बनबास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे

कै़फ़ियात एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.

कैफ़ियात मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19 जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था. उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात (समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म है.

अपने बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो अज़ीम जद्दोजहद हो रही है, उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया है.

कै़फ़ी आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी. उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर (फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल (फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे. कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-
इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े

किताब के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका. उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से एक है-

आज अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज में शक्ति भर दे
इससे पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे होंठों की तपिश पी जाएं
राख हो जाएगा जलते-जलते
और फिर राख बिखर जाएगी

यह नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.
कै़फ़ी आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर, 1974 को लिखी उनकी नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे

उन्होंने अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-

ऐसा झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों

कै़फ़ी को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म को ज़िम्मेदार ठहराया-
जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं

उनकी नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को अपने में समेटे नज़र आता है-

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा

वह तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-

जिसमें जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे

वह गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी लिखते हैं-

राम बनबास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे

कै़फ़ियात एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.

कैफ़ियात मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19 जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था. उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात (समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म है.

अपने बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो अज़ीम जद्दोजहद हो रही है, उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया है.

कै़फ़ी आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी. उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर (फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल (फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे. कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-

इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े

किताब के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका. उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से एक है-

आज अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज में शक्ति भर दे
इससे पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे होंठों की तपिश पी जाएं
राख हो जाएगा जलते-जलते
और फिर राख बिखर जाएगी

यह नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.
कै़फ़ी आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर, 1974 को लिखी उनकी नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे

उन्होंने अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-
ऐसा झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों

कै़फ़ी को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म को ज़िम्मेदार ठहराया-

जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं

उनकी नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को अपने में समेटे नज़र आता है-

दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा

वह तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-

जिसमें जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे

वह गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी लिखते हैं-
राम बनबास से जब लौट के घर में आए
याद जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे

कै़फ़ियात एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.