कैफ़ियात
मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे,
इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास
और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19
जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के
गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था.
उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें
सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के
लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य
अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें
फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के
क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात
(समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म
है
.
अपने
बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने
बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान
में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और
सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं
है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो
अज़ीम जद्दोजहद हो रही है,
उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का
ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया
है.
कै़फ़ी
आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि
उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए
यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए
उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों
के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी.
उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें
मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां
हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर
(फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल
(फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक
दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे.
कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह
साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह
हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-
इतना
तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने
से हो सुकून, न रोने से कल पड़े
…
किताब
के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती
हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर
देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न
कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में
उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका.
उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और
उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख
डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से
एक है-
आज
अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें
बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और
ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे
पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म
रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे
पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज
में शक्ति भर दे
इससे
पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे
होंठों की तपिश पी जाएं
राख
हो जाएगा जलते-जलते
और
फिर राख बिखर जाएगी…
यह
नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस
आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल
उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया
के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में
सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.
कै़फ़ी
आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर,
1974 को लिखी उनकी
नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब
और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस
इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह
टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू
अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे…
उन्होंने
अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-
ऐसा
झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने
उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ
अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं
तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे
ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी
चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों…
कै़फ़ी
को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ
यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक
रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म
को ज़िम्मेदार ठहराया-
जब
भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ
चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल
क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब
रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे
भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे
भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं…
उनकी
नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की
मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को
अपने में समेटे नज़र आता है-
दिल
ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क
आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद
कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक
हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने
घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट
के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़
से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर
तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा…
वह
तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि
उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-
जिसमें
जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ
मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी
जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती
का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने
खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी
आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ
मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे
में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़
का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर
है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर
ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत
बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे…
वह
गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा
बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी
लिखते हैं-
राम
बनबास से जब लौट के घर में आए
याद
जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी
आंगन में जो देखा होगा
छह
दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने
बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है
मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव
सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि
नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव
धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम
यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी
की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह
दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे…
कै़फ़ियात
एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी
अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे
समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.
कैफ़ियात
मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे,
इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास
और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19
जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के
गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था.
उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें
सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के
लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य
अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें
फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के
क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात
(समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म
है.
अपने
बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने
बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान
में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और
सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं
है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो
अज़ीम जद्दोजहद हो रही है,
उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का
ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया
है.
कै़फ़ी
आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि
उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए
यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए
उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों
के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी.
उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें
मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां
हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर
(फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल
(फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक
दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे.
कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह
साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह
हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-
इतना
तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने
से हो सुकून, न रोने से कल पड़े…
किताब
के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती
हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर
देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न
कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में
उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका.
उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और
उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख
डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से
एक है-
आज
अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें
बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और
ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे
पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म
रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे
पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज
में शक्ति भर दे
इससे
पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे
होंठों की तपिश पी जाएं
राख
हो जाएगा जलते-जलते
और
फिर राख बिखर जाएगी…
यह
नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस
आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल
उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया
के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में
सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.
कै़फ़ी
आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर,
1974 को लिखी उनकी
नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब
और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस
इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह
टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू
अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे…
उन्होंने
अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-
ऐसा
झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने
उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ
अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं
तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे
ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी
चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों…
कै़फ़ी
को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ
यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक
रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म
को ज़िम्मेदार ठहराया-
जब
भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ
चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल
क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब
रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे
भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे
भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं…
उनकी
नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की
मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को
अपने में समेटे नज़र आता है-
दिल
ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क
आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद
कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक
हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने
घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट
के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़
से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर
तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा…
वह
तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि
उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-
जिसमें
जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ
मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी
जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती
का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने
खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी
आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ
मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे
में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़
का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर
है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर
ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत
बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे…
वह
गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा
बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी
लिखते हैं-
राम
बनबास से जब लौट के घर में आए
याद
जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी
आंगन में जो देखा होगा
छह
दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने
बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है
मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव
सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि
नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव
धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम
यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी
की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह
दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे…
कै़फ़ियात
एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी
अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे
समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.
कैफ़ियात
मशहूर शायर कै़फ़ी आज़मी के सात काव्य संग्रहों का संकलन है, जिसमें इनकार, आख़िर-ए-शब, मसनवी, आवारा सजदे,
इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा, इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा: दूसरा इजलास
और मुतफ़र्रिक़ात शामिल हैं. 19
जनवरी, 1909 को उत्तर प्रदेश के आज़मढ़ ज़िले के
गांव मिज्वां में जन्मे कै़फ़ी आज़मी का असली नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी था.
उन्होंने फ़िल्मों में भी गीत लिखे, जिन्हें
सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं. उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले. 1970 में उन्हें फ़िल्म सात हिंदुस्तानी के
लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बाद 1975 में उन्हें आवारा सजदे के लिए साहित्य
अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इसी साल उन्हें
फ़िल्म गरम हवा के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला. 10 मई, 2002 को मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. उनकी मौत के
क़रीब एक दशक बाद यह संकलन प्रकाशित हुआ है. इस बारे में शबाना आज़मी कहती हैं, कैफ़ियात कै़फ़ी साहब की कुल्लियात
(समग्र) है. इसे उनकी ज़िंदगी में प्रकाशित होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं हो सका. मुझे इसका ग़म
है.
अपने
बारे में कै़फ़ी आज़मी कहते थे, अपने
बारे में यक़ीन के साथ सिर्फ़ इतना कह सकता हूं कि मैं महकूम (ग़ुलाम) हिंदुस्तान
में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और
सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूंगा. यह किसी मज्ज़ूब की बड़ या दीवाने का सपना नहीं
है. समाजवाद के लिए सारे संसार में और खु़द मेरे अपने देश में एक मुद्दत से जो
अज़ीम जद्दोजहद हो रही है,
उससे हमेशा जो मेरा और मेरी शायरी का
ताल्लुक़ रहा है, इस यक़ीन ने उसी की कोख से जन्म लिया
है.
कै़फ़ी
आज़मी की चार बहनों की टीबी से मौत हो गई थी. इसलिए उनके वालिद सोचते थे कि
उन्होंने अपने बेटों को अंग्रेज़ी तालीम दी है, इसलिए
यह सब हो रहा है. उन्होंने फ़ैसला किया कि वह कै़फ़ी को मौलवी बनाएंगे और इसके लिए
उन्हें लखनऊ में सुल्तानुलमदारिस में दाख़िल करा दिया गया. यहां कै़फ़ी ने छात्रों
के साथ मिलकर एक कमेटी बनाई और अपनी मांगें पूरी कराने के लिए मुहिम शुरू कर दी.
उन्होंने बैठकें कीं, हड़तालें कीं और आख़िर में अपनी मांगें
मनवा कर ही दम लिया. इसी दौरान उन्होंने प्राइवेट इम्तिहान देकर कई डिग्रियां
हासिल कर लीं, जिनमें लखनऊ यूनिवर्सिटी से दबीर माहिर
(फ़ारसी), दबीर कामिल (फ़ारसी), आलिम (अरबी) और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
से आला क़ाबिल (उर्दू), मुंशी (फ़ारसी) और मुंशी कामिल
(फ़ारसी) शामिल हैं. बक़ौल अफ़साना निगार आयशा सिद्दीक़ी, कै़फ़ी साहब को उनके बुज़ुर्गों ने एक
दीनी मदरसे में इसलिए दा़ख़िल किया था कि वहां यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जाएंगे.
कै़फ़ी साहब इस मदरसे में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़कर निकल आए. कै़फ़ी साहब ने ग्यारह
साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी. बेगम अख़्तर ने इसे अपनी आवाज़ दी और यह
हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गई-
इतना
तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े
हंसने
से हो सुकून, न रोने से कल पड़े…
किताब
के शुरू में शबाना आज़मी भी अपने पिता की ज़िंदगी के कई प्रसंगों को बयां करती
हैं. वह लिखती हैं, कै़फ़ी साहब की ज़िंदगी एक ऐसे इंसान, एक ऐसे शायर की कहानी है, जिसने ज़िंदगी को पूरी तरह भरपूर जी कर
देखा है और चौरासी बरस की उम्र में भी उनके हौसलों में कोई थकान नहीं दिखाई दी. 8 फ़रवरी, 1973 को उन पर फ़ालिज का असर हुआ था. हम सबको लगा कि शायद आइंदा वह कुछ न
कर सकें. पांच दिनों बाद उन्हें होश आया. वह मुश्किल से बोल सकते थे. उसी हालत में
उन्होंने शमा ज़ैदी को एक नज़्म लिखवाई, धमाका.
उस धमाके के बारे में जो उन्होंने पांच दिन पहले अपने दिमाग़ में महसूस किया था और
उसी महीने में अस्पताल से निकलने से पहले ही उन्होंने अपनी एक नज़्म ज़िंदगी लिख
डाली. मैं समझती हूं, ज़िंदगी उनकी बेहतरीन नज़्मों में से
एक है-
आज
अंधेरा मेरी नस-नस में उतर जाएगा
आंखें
बुझ जाएंगी, बुझ जाएंगे अहसास-ओ-शऊर
और
ये सदियों से जलता सा, सुलगता-सा वजूद
इससे
पहले कि मेरी बेटी के वो फूल से हाथ
गर्म
रुख़सार को ठंडक बख़्शें
इससे
पहले कि मेरे बेटे का मज़बूत बदन
जान-ए-मफ्लूज
में शक्ति भर दे
इससे
पहले कि मेरी बीवी के होंठ
मेरे
होंठों की तपिश पी जाएं
राख
हो जाएगा जलते-जलते
और
फिर राख बिखर जाएगी…
यह
नज़्म निराशा और नाउम्मीदी पर नहीं, उस
आशा और उम्मीद पर ख़त्म होती है कि एक दिन ज़िंदगी मौत से डरना छोड़ देगी. दरअसल
उनकी बात सिर्फ़ एक इंसान के दिल की बात नहीं, दुनिया
के सारे इंसानों के दिलों की बात हो जाती है और महसूस करते हैं कि उनकी शायरी में
सिर्फ़ उनका नहीं, हमारा आपका सबका दिल धड़क रहा है.
कै़फ़ी
आज़मी अपनी बेटी शबाना से बहुत स्नेह करते थे. 18 सितंबर,
1974 को लिखी उनकी
नज़्म एक दुआ, में उनकी यही मुहब्बत झलकती है-
अब
और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस
इक दुआ कि खु़दा तुझको कामयाब करे
वह
टांक दे तेरे आंचल में चांद और तारे
तू
अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब करे…
उन्होंने
अपनी पत्नी शौकत आज़मी को संबोधित करते हुए एक नज़्म इंतिसाब (समर्पण) लिखी, जिसमें वह कहते हैं-
ऐसा
झोंका भी इक आया था कि दिल बुझने लगा
तूने
उस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा
कुछ
अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे तुझको
आफ़रीं
तुझको कि नाम उनका उजाले रक्खा
मेरे
ये सजदे जो आवारा भी, बदनाम भी हैं
अपनी
चौखट पे सजा ले जो तेरे काम के हों…
कै़फ़ी
को अपनी एक नज़्म बोसा के लिए अपने साथियों की आलोचना का शिकार होना प़डा था. हुआ
यूं कि टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कै़फी ने एक
रूमानी नज़्म लिखी. मज़दूरों की ह़डताल नाकाम रही और उन्होंने इसके लिए उनकी नज़्म
को ज़िम्मेदार ठहराया-
जब
भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ
चिराग़ अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल
क्या, शिगू़फे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब
रक़ीब क़दमों पर सर झुकाने लगते हैं
लम्हे
भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है
लम्हे
भर को सब पत्थर मुस्कराने लगते हैं…
उनकी
नज़्म अंदेशे भी लोकप्रिय नज़्मों में शुमार की जाती है. इसमें प्रेमिका की
मनोस्थिति का शानदार तरीक़े से चित्रण किया गया है. नज़्म का एक-एक लफ़्ज़ दर्द को
अपने में समेटे नज़र आता है-
दिल
ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क
आंखों ने पिए और न बहाए होंगे
बंद
कमरे में जो ख़त मेरे जलाए होंगे
इक-इक
हर्फ़ ज़मीं पे उभर आया होगा
उसने
घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट
के इक ऩक्श ने सौ शक्ल दिखाई होगी
मेज़
से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर
तऱफ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा…
वह
तरक़्क़ी पसंद इंसान थे. उन्होंने हमेशा अपनी बीवी और बेटी को भी यही सिखाया कि
उनमें आत्मविश्वास हो और वे अपने पैरों पर खड़ी हों, अपने सपनों को साकार करें. यह सोच उनके कलाम में भी झलकती है-
जिसमें
जलता हूं उसी आग में जलना है तुझे
उठ
मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िंदगी
जेहद में है, सब्र के क़ाबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती
का लहू कांपते आंसू में नहीं
उड़ने
खुलने में है नकहत, ख़म-ए-गेसू में नहीं
उसकी
आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ
मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
गोशे-गोशे
में सुलगती है चिता तेरे लिए
फ़र्ज़
का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिए
क़हर
है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए
ज़हर
ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए
रुत
बदल डाल अगर फलना-फूलना है तुझे…
वह
गंगा-जमुनी तहज़ीब के पक्षधर थे. बाबरी मस्जिद की शहादत पर उन्होंने नज़्म दूसरा
बनबास लिखी. इस नज़्म में सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार किया गया है. कै़फ़ी आज़मी
लिखते हैं-
राम
बनबास से जब लौट के घर में आए
याद
जंगल बहुत आया, जो नगर में आए
रक़्स-ए-दीवानगी
आंगन में जो देखा होगा
छह
दिसंबर को स्रीराम ने सोचा होगा
तुमने
बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है
मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो घर में आए
पांव
सरजू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि
नज़र आए वहां खू़न के गहरे धब्बे
पांव
धोए बिना सरजू के किनारे से उठे
राम
यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी
की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे
छह
दिसंबर को मिला दूसरा बनबास मुझे…
कै़फ़ियात
एक बेहतरीन किताब है. इसकी ख़ास बात यह भी है कि इसमें फ़ारसी के शब्दों का हिंदी
अनुवाद दिया गया है, ताकि ग़ैर उर्दू भाषी पाठकों को इसे
समझने में मुश्किल पेश न आए. कै़फ़ी साहब का कलाम ख़ालिस उर्दू में है, इसलिए इससे उन लोगों को भी फ़ायदा होगा, जो उर्दू शायरी पसंद करते हैं, लेकिन फ़ारसी लिपि पढ़ नहीं सकते हैं.